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स्वामी विवेकानंद के लेख

स्वामी विवेकानंद

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वैदिक पुरोहित मंत्रबल [1] के बलवान थे। उनके मंत्रबल से देवता आहूत होकर भोज्‍य और पेय ग्रहण करते और यजमानों [2] को वांछित फल प्रदान करते थे। इससे राजा और प्रजा दोनों ही अपने सांसारिक सुख के लिए इन पुरोहितों का मुँह जोहा करते थे। राजा सोम [3] पुरोहितों का उपास्‍य था। इसीलिए सोमाहुति चाहने वाले देवता जो मंत्र से ही पुष्‍ट होते और वर देते थे, पुरोहितों पर प्रसन्‍न थे। दैव-बल के ऊपर मनुष्‍य-बल कर ही क्‍या सकता है ? मनुष्‍य-बल के केंद्र राजा लोग भी तो उन्‍हीं पुरोहितों की कृपा के भिखारी थे। उनकी कृपादृष्टि ही राजाओं के लिए काफ़ी सहायता थी और उनका आशीर्वाद ही सर्वश्रेष्‍ठ राजकर था। पुरोहित लोग राजाओं को कभी डर दिखा आज्ञाएँ देते, कभी मित्र बन सलाहें देते और कभी चतुर नीति के जाल बिछा उन्‍हें फँसाते थे। इस प्रकार उन लोगों ने राजकुल को अनेक बार अपने वश में किया। राजाओं को पुरोहितों से डरने का सबसे मुख्‍य कारण यह था कि उनका यश और उनके पूर्वजों की कीर्ति पुरोहितों की ही लेखनी के अधीन थी। राजा अपनी जिंदगी में कितना ही तेजस्‍वी और कीर्तिमान क्‍यों न हो, अपनी प्रजा का माँ-बाप ही क्‍यों न हो, पर उसकी वह अत्‍युज्‍ज्‍वल कीर्ति समुद्र में गिरी हुई ओस की बूँदों की तरह काल-समुद्र में सदा के लिए विलीन हो जाती थी। केवल अश्‍वमेधादि बड़े-बड़े याग-यज्ञों का अनुष्‍ठान करनेवाले तथा बरसात के बादलों की तरह ब्राह्मणों के ऊपर धन की झड़ी लगानेवाले राजाओं के ही नाम इतिहास के पृष्‍ठों में पुरोहित-प्रसाद से जगमगा रहे हैं। आज ब्राह्माण्‍य जगत् में देवताओं के प्रिय 'प्रियदर्शी धर्माशोक' [4] का केवल नाम भर रह गया है, पर परीक्षित-जनमेजय [5] से बालक, युवा, वृद्ध- सभी भली-भाँति परिचित हैं।

राज्‍य-रक्षा, अपने भोग-विलास, अपने परिवार की पुष्टि और सबसे बढ़कर, पुरोहितों की तुष्टि के लिए राजा लोग सूर्य की भाँति अपनी प्रजा का धन सोख लिया करते थे। बेचारे वैश्‍य लोग ही उनकी रसद और दुधारू गाय थे।

प्रजा को कर उगाहने या राज्‍य-कार्य में मतामत प्रकट करने का अधिकार न हिंदू राजाओं के समय में था और न बौद्ध शासकों के ही समय में। यद्यपि महाराज युधिष्ठिर वारणावत में वैश्‍यों और शूद्रों के घर गए थे, अयोध्‍या की प्रजा ने श्री रामचंद्र को युवराज बनाने के लिए प्रार्थना की थी, सीता के वनवास तक के लिए छिप-छिपकर सलाहें भी की थीं,तो भी प्रत्‍यक्ष रूप से, किसी स्‍वीकृत राज्‍य-नियम के अनुसार, प्रजा किसी विषय में मुँह नहीं खोल सकती थी। वह अपने सामर्थ्‍य को अप्रत्‍यक्ष और अव्‍यवस्थित रूप से प्रकट किया करती थीं। उस शक्ति के अस्तित्‍व का ज्ञान उस समय भी उसे नहीं था। इसी से उस शक्ति को संगठित करने का उसमें न उद्योग था और न इच्‍छा ही। जिस कौशल से छोटी-छोटी शक्तियाँ आपस में मिलकर प्रचंडबल संग्रह करती हैं, उनका भी पूरा अभाव था।

क्‍या यह नियमों के अभाव के कारण था ? नहीं। नियम और विधियाँ सभी थीं। कर-संग्रह, सैन्‍य-प्रबंध, विचार-संपादन, दंड-पुरस्‍कार आदि सब विषयों के लिए सैकड़ों नियम थे, पर सबकी जड़ में वही ऋषि-वाक्‍य, दैव शक्ति अथवा ईश्‍वर की प्रेरणा थी। न उन नियमों में जरा भी हेरफेर हो सकता था, और न प्रजा के लिए यही संभव था कि वह ऐसी शिक्षा प्राप्‍त करती, जिससे आपस में मिलकर लोक-हित के काम कर सकती, अथवा राज-कर के रूप में लिए हुए अपने धन पर अपना स्‍वत्‍व रखने की बुद्धि उसमें उत्‍पन्‍न होती, या यही कि उसके आय-व्‍यय के नियमन करनेका अधिकार प्राप्‍त करने की इच्‍छा उसमें होती।

फिर ये सब नियम पुस्‍तकों में थे। और कोरी पुस्‍तकों के नियमों में तथा उनके कार्यरूप में परिणत होने में आकाश-पाताल का अंतर होता है। सैकड़ों अग्निवर्णों [6] के पश्‍चात् एक रामचंद्र का जन्‍म होता है। जन्‍म से चंडाशोकत्‍व दिखानेवाले राजा अनेक होते हैं, पर धर्माशोकत्‍व [7] दिखानेवाले कम होते हैं। औरंगजेब जैसे प्रजाभक्षकों की अपेक्षा अकबर जैसे प्रजारक्षकों की संख्‍या बहुत कम होती है।

रामचंद्र, युधिष्ठिर, धर्माशोक अथवा अकबर जैसे राजा हों भी तो क्‍या ? किसी मनुष्‍य के मुँह में यदि सदा कोई दूसरा ही अन्‍न डाला करता हो, तो उस मनुष्‍य की स्‍वयं हाथ उठाकर खाने की शक्ति क्रमश: लुप्‍त हो जाती है। सभी विषयों में जिसकी रक्षा दूसरों द्वारा होती है, उसकी आत्‍मरक्षा की शक्ति कभी स्‍फुरित नहीं होती। सदा बच्‍चों की भाँति पलने से बड़े बलवान युवक भी लंबे क़दवाले बच्‍चे ही बने रहते हैं। देवतुल्‍य राजा की बड़े यत्‍न से पाली हुई प्रजा-भी कभी स्‍वायत्तशासन (Self-government) नहीं सीखती। सदा राजा का मुँह ताकने के कारण वह धीरे-धीरे कमजोर और निकम्‍मी हो जाती है। यह पालन और रक्षण ही बहुत दिनों तक रहने से सत्‍यानाश का कारण होता है।

जो समाज महापुरुषों के अलौकिक, अतींद्रिय ज्ञान से उत्‍पन्‍न शास्‍त्रों के अनुसार चलता है, उसका शासन राजा-प्रजा, धनी-निर्धन, पंडित-सूर्ख, सब पर कायम रहना विचार से तो सिद्ध होता है, पर यह कार्यरूप में कहाँ तक परिणत हो सका है, या होता है, यह ऊपर ही बताया जा चुका है। राज कार्य में प्रजा की अनुमति लेने की पत्रति- जो आजकल के पाश्‍चात्‍य जगत् का मूल मंत्र है और जिसकी अंतिम वाणी अमेरिका के घोषणा-पत्र में डंके की चोट पर इन शब्‍दों में सुनायी गई थी 'इस देश में प्रजा का शासन प्रजा द्वारा और प्रजा के हित के लिए होगा'-भारत में नहीं थी, यह बात भी नहीं है। यवन परिव्राजकों ने बहुत छोटे-छोटे गणतंत्र राज्‍य इस देश में देखे थे। बौद्ध ग्रंथों में भी इस बात का उल्‍लेख कहीं कहीं पाया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ग्राम-पंचायतों में गणतांत्रिक शासन-पद्धति का बीज अवश्‍य था और अब भी अनेक स्‍थानों में है, पर वह बीज जहाँ बोया गया, वहाँ अंकुरित नहीं हुआ। यह भाव गाँव की पंचायत को छोड़कर समाज तक बढ़ ही नहीं सका।

धर्म-समाज के संन्‍यासियों में और बौद्धभिक्षुओं के मठों में इस स्‍वायत्त शासन-पद्धति का विशेष रूप से विकास हुआ था। इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। नागा संन्‍यासियों में प्रत्‍येक मनुष्‍य के सांप्रदायिक अधिकार को, पंचों की प्रभुता और प्रतिष्‍ठा को और उस संप्रदाय में सहयोग-शक्ति के कामों को देखकर आज भी चकित होना पड़ता है।

बौद्ध विप्‍लव के साथ साथ पुरोहित-शक्ति का ह्यास ओर राज-शक्ति का विकास हुआ। बौद्ध काल के पुरोहित संसार-त्‍यागी होते थे, मठों में वास करते थे तथा प्रपंच और झगड़ों से दूर रहा करते थे। राजाओं को अभिशाप या बाहुबल से अपने वश में रखने का उत्‍साह या इच्‍छा इन पुरोहितों की नहीं थी। यदि थी भी तो वह पूरी नहीं हो सकती थी, क्‍योंकि आहुतिभोजी देवताओं की अवनति के साथ साथ उनकी प्रतिष्‍ठा घट रही थी। सैकड़ों ब्रह्मा और इंद्र बुद्धत्‍व पाए हुए नर-देव के चरणों पर लोटते थे और इस बुद्धत्‍व में मनुष्‍य मात्र का ही अधिकार था।

इसलिए राजप्रभुत्‍वरूपी बलवान यज्ञाश्‍व की बाग अब पुरोहितों की सख्‍त मुट्ठी में नहीं रही, अब वह अश्‍व अपने बल से स्‍वच्‍छन्‍द विचरण करने लगा। इस युग में शक्ति का केंद्र सामगान और यज्ञ करनेवाले पुरोहितों में नहीं रहा, और नराजशक्ति छोटी छोटी रियासतों पर राज्‍य करनेवाले भारत के बिखरे हुए क्षत्रिय राजाओं में ही रही। वे चक्रवर्ती सम्राट्, जिनका राज्‍य देश के एक छोर से दूसरे छोर तक विस्‍तृत था और जिनकी आज्ञा का विरोध करने वाला कोई नहीं था, वे ही अब मानव शक्ति के केंद्र बने। इस समय समाज के नेता वशिष्‍ठ, विश्‍वामित्र आदि नहीं रहे, वरन् चंद्रगुप्‍त, अशोक आदि हुए। बौद्ध काल के सार्वभौम राजाओं की तरह भारत का गौरव बढ़ानेवाले दूसरे कोई राजा भारत के सिंहासन पर नहीं बैठे। इस युग के अंत में आधुनिक हिंदू धर्म का और राजपूत आदि जातियों का अभ्‍युत्‍थान हुआ। इन लोगों के हाथ में भारत का राजदंड अपनी अखंड प्रतिष्‍ठा से गिरकर फिर टुकड़े-टुकड़े हो गया। इस समय राज-शक्ति के सहायक रूप में पुरोहित-शक्ति का पुन: अभ्‍युत्‍थान हुआ।

इस विप्‍लव के समय पुरोहित-शक्ति का वैदिक काल से चला आया और जैन-बौद्धों के विप्‍लव में बहुत बढ़े-बढ़े आकार में प्रकट वह पुराना वैर मिट गया। अब ये दोनों प्रबल शक्तियाँ एक दूसरे की सहायक हो गयीं। परंतु अब ब्राह्मणों में न वह तेज ही रहा और न क्षत्रियों में वह प्रचंड बल ही। एक दूसरे की स्‍वार्थ-सिद्धि में सहायता देने, विपक्षियों का सर्वनाश करने तथा बौद्धों का नाम तक मिटाने में ही ये दो सम्मिलित शक्तियाँ अपने बल को गँवाती रहीं और तरह तरह से बँटकर प्राय: नष्‍ट सी हो गयीं। दूसरों का रक्‍त चूसना, धन हरण करना, वैर चुकाना आदि इन लोगों का नित्‍य का काम था। ये प्राचीन राजाओं के राजसूय आदि यज्ञों की थोथी नक़ल किया करते, भाटों और चारणों आदि खुशामदियों के दल से घिरे रहते, और मंत्र-तंत्र के घोर शब्‍द-जाल में फँसे थे। इसका फल यह हुआ कि ये लोग पश्चिम से आए हुए मुसलमान व्‍याधों के सहज शिकार बन गए।

जिस पुरोहित-शक्ति की लड़ाई राज-शक्ति के साथ वैदिक काल से ही चली आ रही थी, जिस शक्ति की प्रतिस्‍पर्धा को भगवान् श्री कृष्‍ण ने अपनी अमानव प्रतिभा से अपने समय में मिटा सा ही दिया था, जो पुरोहित-शक्ति जैन और बौद्ध विप्‍लव के समय भारत के कर्मक्षेत्र से प्राय: लुप्‍त सी हो गई थी अथवा जिसने उन प्रबल प्रतिस्‍पर्धी धर्मों की दासता स्‍वीकार कर किसी तरह अपने दिन काटे थे, जिस पुरोहित-शक्ति ने मिहिरकुल [8] आदि के भारत विजय करने पर कुछ दिन तक अपना पहला अधिकार फिर प्राप्‍त करने के लिए पूरा प्रयत्‍न किया था और इसके लिए मध्‍य एशिया से आई हुई निष्‍ठुर बर्बर सेनाओं के अधीन होकर उनकी घृणित रीति-नीतियों को अपने देश में प्रचलित किया था तथा साथ ही साथ जिस पुरोहित-शक्ति ने उन निरक्षर बर्बरों को प्रसन्‍न रखने के लिए ठगने के सरल उपाय मंत्र-तंत्रादिक की शरण ली थी और इस कारण अपनी विद्या, बल और सदाचार को बिल्‍कुल खोकर आर्यावर्त को कुत्सित, गंदे बर्बराचार का एक बड़ा दलदल बनाया एवं कुसंस्‍कार और अनाचार के निश्चित फलस्‍वरूप जो निस्‍सार और अत्‍यंत दुर्बल हो गई थी, वही पुरोहित-शक्ति पश्चिम से आई हुई मुसलमान आक्रमण रूपी आंधी के स्‍पर्शमात्र से चूर चूर होकर भूमि पर गिर गई। अब, फिर वह कभी उठेगी या नहीं, कौन जाने ?

मुसलमानों के समय में इस शक्ति का फिर सिर उठाना असंभव था। मुहम्‍मद साहब स्‍वयं इसके पूरे विरोधी थे। इसे समूल नष्‍ट करने के लिए वे नियम आदि भी बना गए हैं। मुलसमानों के राज्‍य में राजा स्‍वयं प्रधान पुरोहित रहा है। वही धर्मगुरु (खलीफा) रहा है और सम्राट् होने पर प्राय: सारे मुसलमान जगत् के नेता होने की आशा रखता है। मुसलमानों के लिए यहूदी या ईसाई अधिक घृणा के पात्र नहीं हैं; वे केवल अल्‍पविश्‍वासी ही हैं, पर हिंदू लोग तो काफिर और मूर्ति-पूजक होने से इस जीवन में बलिदान, और मृत्‍यु के बाद अनंत नरक के भागी समझे जाते हैं। इन्‍हीं काफिरों के धर्मगुरुओं अर्थात् पुरोहितों को किसी प्रकार जीवन धारण करने की आज्ञा मात्र मुलसमान राजा दया कर दे सकते थे और वह भी कभी कभी; नहीं तो जहाँ राजा की धर्मप्रियता की मात्रा जरा भी बढ़ी कि काफिरों की हत्‍या रूपी महायज्ञ का आयोजन हो जाता था।

एक ओर राज-शक्ति अब विधर्मी और भिन्‍न आचारवाले प्रबल राजाओं में आई और दूसरी ओर पुरोहित-शक्ति अब समाज-शासन के ऊँचे पद से एकदम गिर गई। कुरान की दंडनीति अब मनुस्‍मृति आदि धर्मशास्‍त्रों के स्‍थान पर आ डटी ! अरबी और फारसी भाषाओं ने संस्‍कृत की जगह ली। संस्‍कृत भाषा अब विजित और घृणित हिंदुओं के धार्मिक कृत्‍यों के ही काम की रही और इसीलिए पुरोहितों के हाथ में किसी तरह जीवनयापन करने लगी। पुरोहित-शक्ति अब विवाह आदि संस्‍कार कराकर ही संतोष मानने लगी और यह भी मुसलमान राजाओं की कृपादृष्टि रहने तक ही।

पुरोहित-शक्ति के दबाव के कारण राज-शक्ति का विकास वैदिक काल में और उसके कुछ दिनों बाद तक न हो सका था। हम लोग देख चुके हैं कि बौद्ध विप्‍लव के बाद किस प्रकार पुरोहित-शक्ति के विनाश के साथ ही भारत की राज-शक्ति का पूर्ण विकास हुआ। बौद्ध साम्राज्‍य के पतन और मुसलमान साम्राज्‍य की स्‍थापना के बीच में राजपूतों ने राज-शक्ति को पुन: स्‍थापित करने की जो चेष्‍टा की थी, वह इसलिए असफल हुई कि पुरोहित-शक्ति ने इस समय फिर नया जीवन पाने का प्रयत्‍न किया था।

मुसलमान राजा पुरोहित-शक्ति को दबाकर ही मौर्य, गुप्‍त, आंध्र, क्षत्रप [9] आदि राजाओं की गौरव-श्री की छटा फिर से दिखा सके थे।

इस प्रकार भारत की पुरोहित-शक्ति जिसका नियंत्रण कुमारिल, शंकर, रामानुज आदि ने किया था, जिसकी रक्षा राजपूतों आदि के बाहुबल से हुई थी और जिसने बौद्धों और जैनों का संहार कर पुनर्जीवन प्राप्‍त करने की चेष्‍टा की थी, वही शक्ति मुसलमान काल में मानो सदा के लिए सो गई। इस समय वैर-विरोध केवल राजा और राजा में ही रहा। इस काल के अंत में जब हिंदू-शक्ति वीर मराठों या सिक्‍खों के हाथ आई और ये हिंदू धर्म को किसी अंश में पुन: स्थापित कर सके, तब भी पुरोहित-शक्ति का उससे विशेष संबंध नहीं था। सिक्‍ख लोग तो जब किसी ब्राह्मण को अपने संप्रदाय में लेते हैं, तब उससे स्‍पष्‍ट रूप से ब्राह्मण-चिन्‍ह का परित्‍याग कराकर उसे अपने धर्म-चिह्न से भूषित करते हैं।

इस प्रकार अनेक संघर्षों के बाद राज-शक्ति की अंतिम जय-घोषणा विधर्मी राजाओं के नाम पर भारत-गगन में कई शताब्दियों तक गूँजती रही, परंतु इस युग के अंत में एक नई शक्ति धीरे धीरे इस देश में अपना प्रभाव फैलाने लगी।

यह शक्ति भारतवासियों के लिए ऐसी नई है, और इसका जन्‍म-कर्म इतना कम समझ में आता है और इसका प्रभाव इतना प्रबल है कि भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक इसके राज्‍य करते रहने पर भी थोड़े से ही भारतवासी समझते हैं कि यह शक्ति क्‍या है। यह बात भारत पर इंग्लैंड के अधिकार की है।

इस देश का विशाल धन और हरी-भरी खेती विदेशियों के मन में बहुत पुराने समय से अधिकार की लालसा करती आ रही है। भारतवासी विजातियों द्वारा बारंबार पददलित हुए हैं। तो फिर हम लोग भारत पर इंग्लैंड के अधिकार को एक अपूर्व घटना क्‍यों मानते हैं ?

धर्म, मंत्र और शास्‍त्र के बल से बलवान, शापरूपी अस्‍त्र से सज्जित तथा सांसारिक स्‍पृहाशून्‍य तपस्वियों के भ्रू-भंग के सामने प्रतापी राजाओं का काँपना भारतवासी सनातन काल से देखते आए हैं। फिर सेना और शस्‍त्रों से सजे हुए वीर राजाओं के अकुण्ठित वीर्य और एकाधिकार के सामने प्रजा का- सिंह के सामने बकरियों की भाँति-सिर झुकाए खड़ा रहना भी उन्‍होंने अवश्‍य देखा था। पर धनवान होकर भी जो वैश्‍य, राजाओं की कौन कहे, राजकुटुंबियों तक के सामने सदा भयभीत हो हाथ जोड़े खड़े रहते थे, उन्‍हीं में से कुछ लोगों का साथ मिलकर व्‍यापार करने की इच्‍छा से नदियाँ और समुद्र पार कर यहाँ आना और अपनी बुद्धि और धन-बल से धीरे-धीरे चिर प्रतिष्ठित हिंदू-मुसलमान राजाओं को अपने हाथ की कठपुतलियाँ बना लेना, यही नहीं, धन के बल से अपने देश के राज-कुटुंबियों तक से अपना दासत्‍व स्‍वीकार कराकर उनकी शूरता और विद्या-बल को धन उपार्जन करने का अपना साधन बना लेना, और जिस देश के महाकवि की दिव्‍य लेखनी द्वारा चित्रित गर्वित लॉर्ड एक साधारण व्‍यक्ति से कहता है कि 'दूर हो नीच ! तू एक सरदार के पवित्र शरीर को छूने का साहस करता है !'- उसी देश के उन्‍हीं प्रतापी सरदारों के वंशजों का थोड़े ही समय में ईस्‍ट इंडिया कंपनी नाम के वणिक-दल के आज्ञाकारी दास बनकर भारतमें आने को परम गौरव समझना भारतवासियों ने कभी नहीं देखा था।

सत्‍व, रज आदि तीन गुणों के तारतम्‍य से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चार वर्ण उत्‍पन्‍न होते हैं और ये चारों वर्ण अनादि काल से सभी सभ्‍य समाज में विद्यमान हैं। काल-प्रभाव से और देश-भेद से किसी वर्ण की शक्ति या संख्‍या दूसरों की अपेक्षा बढ़ या घट सकती है, परंतु संसार के इतिहास का अनुशीलन करने से प्रतीत होता है कि प्राकृतिक नियमों के वश ब्राह्मण आदि चारों वर्ण क्रम स पृथ्‍वी का भोग करेंगे।

चीनी, सुमेरी, बेबिलोनी, मिस्‍त्र, कैल्डिया निवासी, आर्य, ईरानी, यहूदी और अरबी आदि जातियों में समाज की बागडोर प्रथम युग में ब्राह्मण या पुरोहित के हाथ में थी। दूसरे युग में क्षत्रियों का अर्थात् राजकुल या एकाधिकारी राजाओं का अभ्‍युत्‍थान हुआ।

वैश्‍यों के या वाणिज्‍य से धनवान होनेवाले संप्रदाय के हाथों में समाज का शासन-सूत्र पहले-पहल इंग्लैंड-प्रमुख पाश्‍चात्‍य देशों में आया है।

यद्यपि प्राचीन ट्रॉय और कार्थेज और उनकी अपेक्षा अर्वाचीन वेनिस और अन्‍य छोटे- छोटे व्‍यापार करने वाले देश बड़े ही प्रतापशाली हुए थे, तो भी वैश्‍यों का यथार्थ अभ्‍युत्‍थान इन देशों में नहीं हुआ था।

पुराने समय में राजघराने के लोग ही नौकरों और अन्‍य साधारण लोगों द्वारा व्‍यापार कराते थे और उसका लाभ स्‍वयं प्राप्‍त करते थे। इन इने-गिने मनुष्‍यों को छोड़कर दूसरे किसी को देश-शासन आदि के कामों में मुँह खोलने का अधिकार नहीं था। मिस्‍त्र आदि प्राचीन देशों में ब्राह्मण-शक्ति थोड़े ही समय तक प्रधान शक्ति रही। उसके बाद वह राज-शक्ति के अधीन और उसकी सहकारी बनकर रहने लगी। चीन में कन्‍फ्यूशस [10] की प्रतिभा द्वारा गठी हुई राज-शक्ति ढाई हजार वर्षों से भी अधिक काल से पुरोहित-शक्ति को अपनी इच्‍छानुसार चलाती आ रही है। गत दो सौ वर्षों से तिब्‍बत के सर्वग्रासी लामा लोग राजगुरु होकर भी सब प्रकार से चीनी सम्राट् के अधीन होकर दिन काट रहे हैं।

भारत में राज-शक्ति की जय और उन्‍नति दूसरे पुराने सभ्‍य देशों से बहुत दिनों बाद हुई। इसीलिए मिस्‍त्री, बेबिलोनी और चीनी साम्राज्‍यों के बहुत दिनों बाद भारत-साम्राज्‍य स्‍थापित हुआ। एक यहूदी जाति में राज-शक्ति अनेक प्रयत्‍न करने पर भी पुरोहित-शक्ति पर अपना अधिकार बिल्‍कुल न जमा सकी। वैश्‍यों ने भी उस देश में कभी प्राधान्‍य नहीं पाया। प्रजा ने पुरोहितों के बंधनों से छूट ने की चेष्‍टा की थी परंतु भीतर ईसाई आदि धर्म-संप्रदायों के संघर्ष से और बाहर बलवान रोम-साम्राज्‍य के दबाव से यह मृतप्राय हो गई।

जिस प्रकार पुराने युग में राज-शक्ति के सामने ब्राह्मण-शक्ति को बहुत प्रयत्‍न करने पर भी हार माननी पड़ी, उसी प्रकार वर्तमान युग में हुआ। इस नई वैश्‍य-शक्ति के प्रबल आघात से कितने ही राजमुकुट धूल में जा मिले और कितने ही राजदंड सदा के लिए टूट गए। जो कोई सिंहासन सभ्‍य देशों में किसी तरह बच गया, वह इसलिए कि इससे इन्‍हीं नमक, तेल, चीनी या सुरा बेचने वालों को अपने कमाए प्रचुर धन से अमीर और सरदार बनकर अपना गौरव दिखाने का मौका मिला।

वह नई महाशक्ति जिसका राजपथ पहाड़ों जैसी ऊँची तरंगोंवाला समुद्र है, जिसके प्रभाव से बिजली बात की बात में एक मेरू से दूसरे मेरू तक खबर ले जाती है, जिसके प्रबंध से एक देश का माल दूसरे देश में अनायास पहुँच जाता है और जिसके आदेश से सम्राट् तक थर-थर काँपते हैं, संसार-समुद्र के उसी सर्वजयी वैश्‍य-शक्ति के अभ्‍युत्‍थानरूपी महातरंग की चोटीवाले सफेद झागों में इंग्लैंड का सिंहासन विराजमान है।

इसलिए भारत पर इंग्लैंड की विजय- जैसा हम लोग बचपन में सुना करते थे, ईसा मसीह या बाइबिल की विजय नहीं है, और न पठान-मुगल आदि बादशाहों की विजय की भाँति ही है। ईसा मसीह, बाइबिल, राजप्रासाद, अनेक प्रकार से सजी-सजायी बड़ी बड़ी सेनाओं का सगर्व कूच तथा सिंहासन का विशेष आडंबर आदि- इन सबके पीछे असली इंग्लैंड विद्यमान है। उस इंग्लैंड की ध्‍वजाएँ पुतलीधरों की चिमानियाँ हैं, उसकी सेना व्‍यापारी जहाज हैं, उसका लड़ाई का मैदान संसार का बाजार है और उसकी रानी स्‍वयं स्‍वर्णांगी लक्ष्‍मी है।

इसीलिए ऊपर कहा है कि भारत पर इंग्लैंड का अधिकार एक बड़ी ही अपूर्व घटना है। इस नई महाशक्ति के संघर्ष ने भारत में कौन-कौन नए विप्‍लव और उसके फलस्‍वरूप क्‍या-क्‍या नए परिवर्तन होंगे, इसका भारत के पूर्वकालिक इतिहास से अनुमान करना भी कठिन है।

यह पहले कहा जा चुका है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय़, वैश्‍य और शूद्र- ये चारों ही वर्ण यथाक्रम पृथ्‍वी का भोग करते हैं। प्रत्‍येक वर्ण के प्रभुत्‍व-काल में कुछ हितकर और कुछ अहितकर काम हो जाया करते हैं।

पुरोहित-शक्ति बुद्धिबल पर ही खड़ी है, न कि बाहुबल पर। इसलिए पुरोहितों के प्राधान्‍य के साथ विद्या का प्रचार होता है। इंद्रियों की जहाँ गति नहीं, उस आध्‍यात्मिक जगत् की बात जानने और वहाँ की सहायता पाने के लिए मनुष्‍य सदा व्‍याकुल रहते हैं। साधारण लोगों का वहाँ प्रवेश नहीं। संयमी, इंद्रियों के पार देखनेवाले और सत्‍वगुणी पुरुष ही उस राज्‍य में जाते हैं, वहाँ का समाचार लाते हैं और दूसरों को मार्ग दिखाते हैं। ये ही लोग पुरोहित हैं और मनुष्‍य-समाज के प्रथम गुरु, नेता और परिचालक हैं।

देवज्ञ पुरोहित देवता के समान पूजे जाते हैं। एड़ी-चोटी का पसीना एक कर उन्‍हीं जीविका नहीं प्राप्‍त करनी पड़ती। सब भोगों में अग्र भाग देवताओं को प्राप्‍य है, और देवताओं के मुख पुरोहित हैं। समाज उन्‍हें जाने-अनजाने प्रचुर अवकाश देता है, और इससे वे लोग चिंताशील हुआ करते हैं। इसी कारण पहले-पहल विद्या की उन्‍नति पुरोहितों के प्राधान्‍य-काल में होती है। दुर्धर्ष क्षत्रियसिंह और भयकंपित प्रजा-अजा-यूथ के बीच में पुरोहित दंडायमान रहते हैं। सिंह की सब कुछ नाश करने की इच्‍छा पुरोहितों के हाथ के अध्‍यात्‍म-बल रूपी कशाघात से रोकी जाती है। धन-जन के मद से मत राजाओं की यथेच्‍छाचार रूपी आग की लपट सब किसीको जला सकती है, परंतु धन-जनविहीन, तपोबलमात्र का भरोसा रखनेवाले पुरोहितों के वचन रूपी पानी से वह आग बुझ जाती है। इनके प्रभुत्‍व-काल में सभ्‍यता का प्रथम आविभवि, पशुत्‍व के ऊपर देवत्‍व की प्रथम विजय,जड़ के ऊपर चैतन्‍य का प्रथम अधिकार और प्रकृति के खिलौने, मिट्टी के लोंदे जैसे मनुष्‍य-शरीर में छिपे हुए ईश्‍वरत्‍व का प्रथम विकास होता है। जड़ और चैतन्‍य को पहले-पहल अलग करनेवाले, इहलोक और परलोक को मिलानेवाले, देव और मनुष्‍य के दूत, एवं राजा और प्रजा के बीच के पुल यही पुरोहित हैं। कितने ही कल्‍याणों के अंकुर इन्‍हीं के तपोबल, इन्‍हीं के विद्या-प्रेम, इन्‍हीं के त्‍याग और इन्‍हीं के प्राण-सिंचन के पनपते हैं। इसीलिए सब देशों के पहली पूजा इन्‍हीं ने पाई है और इसीलिए इनकी स्‍मृति भी हम लोगों के लिए पवित्र है।

पर साथ ही दोष भी हैं। प्राण-स्‍फूर्ति के साथ ही साथ मृत्‍युबीज भी बोया जाता है। अंधकार और प्रकाश साथ ही साथ चलते हैं। बहुत से ऐसे प्रबल दोष हैं, जो उचित समय पर यदि दूर न किए जाएँ, तो समाज के विनाश के कारण हो जाते हैं। स्‍थूल पदार्थों द्वारा शक्ति का विकास सब कोई देखते हैं। अस्‍त्र-शस्‍त्र का छेदना, अग्नि आदि का जलाना या दूसरी क्रिया-ये सब बातें स्‍थूल प्रकृति के प्रबल संघर्ष में आक़र सब कोई देखते और समझते हैं। इनमें किसी को संदेह नहीं होता है, मन में दुविधा तक नहीं रहती है। जहाँ शक्ति का आधार या विकास-स्‍थान केवल मानसिक है, जहाँ बल किसी शब्‍द में या उसके विशेष उच्‍चारण या जप में है अथवा किसी दूसरे मानसिक प्रयोग में हे, वहाँ प्रकाश अंधकार के साथ मिला रहता है। वहाँ विश्‍वास का घटना और बढ़ना स्‍वाभाविक है। प्रत्‍यक्ष में भी कभी कभी वहाँ संदेह हो जाता है। जहाँ रोग, शोक और भय को दूर करने या वैर साधने के लिए साधारण प्रत्‍यक्ष स्‍थूल उपायों को छोड़कर केवल स्‍तंभन, उच्‍चाटन, वशीकरण या मारण आदि का आश्रय लिया जाता है [11] , वहाँ स्‍थूल और सूक्ष्‍म के बीच के इस कुहरे से ढके रहस्‍यमय जगत् में वास करनेवालों के मन में भी मानो आप से आप धुंध छा जाती है। ऐसे मन के सामने सरल रेखा प्राय: पड़ती ही नहीं। यदि पड़ती भी है, तो मन उसे टेढ़ी कर लेता है। इसका फल यह होता है कि कपटता, हृदय की घोर संकीर्णता, अनुदारता और सबसे अधिक हानिकारक प्रचंड ईर्ष्‍या से पैदा हुई असहिष्‍णुता उनमें आ जाती है। पुरोहित के मन में यह विचार स्‍वाभाविक उठता है कि जिस बल से देवता मेरे वश में हैं, रोग आदि के ऊपर मेरा अधिकार है, भूत-प्रेतादि के ऊपर मेरी विजय है, और जिसके बदले मुझे संसार की सुख-स्‍वच्‍छंदता और ऐश्‍वर्य प्राप्‍त हैं, उसे मैं दूसरों को क्‍यों दूँ ? फिर यह बल बिल्‍कुल मानसिक है। इसे छिपाने में सुविधा कितनी है ! इस घटना-चक्र में पड़कर मनुष्‍य का स्‍वभाव जैसा हो सकता है, वैसा ही हो जाता है; सदा आत्‍म-गोपन का अभ्‍यास करते करते स्‍वार्थपरता और कपटता आ जाती है और फिर, उनके विषैले फल। कुछ समय बाद इस आत्‍म-गोपन की प्रतिक्रिया भी उन पर आ पड़ती है। बिना अभ्‍यास और वितरण के प्राय: सभी विद्याएँ नष्‍ट हो जाती हैं और जो बच भी जाती हैं, वे अलौकिक दैवी उपाय से प्राप्‍त समझी जाने के कारण उनके सुधारने का प्रयत्‍न भी व्‍यर्थ समझा जाता है, नई विद्या सीखना तो अलग रहा। उसके बाद वह विद्याहीन, पुरुषार्थहीन और अपने पूर्वजों का नाम मात्र रखनेवाला पुरोहित-कुल अपने पैतृक अधिकार, पैतृक सम्‍मान और पैतृक आधिपत्‍य को बनाए रखने के लिए जिस-तिस उपाय से यत्‍न करता है। इसीलिए उसका अन्‍य जातियों के साथ बड़ा विरोध होता है।

प्राकृतिक नियमानुसार, जराजीर्ण की स्‍थान-पूर्ति करने के लिए नव जाग्रत शक्ति की स्‍वाभाविक प्रचेष्‍टा के फलस्‍वरूप यह संग्राम आ उपस्थित होता है। इस संग्राम का फल ऊपर बताया जा चुका है।

उन्‍नति के समय में पुरोहितों का जो संयम, तप और त्‍याग सत्‍य की खोज में पूरा-पूरा लगा था, वही अवनति के पूर्व काल में केवल भोग्‍य के संग्रह करने एवं अधिकार के फैलाने में व्‍यय होने लगा। जिस शक्ति का आधार होने के कारण उनकी पूजा होती थी, वही शक्ति अब स्‍वर्ग से नरक को जा गिरी। अपने उद्देश्‍य को भूलकर पुरोहित-शक्ति रेशम के कीड़ों की तरह अपने ही जाल में आप फँस गई। जो बेड़ी दूसरों के पैरों के लिए अनेक पीढि़यों से बड़े यत्‍न से गढ़ी जा रही थी, वही अब उन पुरोहितों की ही गति को सैकड़ों फेरों से रोकने लगी। बाह्य शुद्धि के लिए छोटे छोटे आचारों का जो जाल समाज को बुरी तरह फँसा रखने के लिए चारों ओर फैलाया गया था, उसी की रस्सियों में सिर से पैर तक फँसकर पुरोहित-शक्ति हताश सी हो गई है। उससे निकलने का कोई उपाय भी नहीं दिखता है। इस जाल को काटने से पुरोहितों की पुरोहिताई बचती नहीं। जो पुरोहित इस कठोर बंधन में अपनी स्‍वाभाविक उन्‍नति की इच्‍छा को बहुत दबी हुई देखते हैं, और इसलिए इस जाल को काटकर अन्‍य जातियों की वृत्ति का अबलंबन कर धन उपार्जन करते हैं, उनकी पुरोहिताई के अधिकार को समाज तुरंत छीन लेता है। आधी यूरोपीय पोशाक और रहन-सहन, तथा सँवारे हुए बाल रखनेवाले ब्राह्मणों के ब्राह्मणत्‍व में समाज को विश्‍वास नहीं है। फिर भारत में यह नवागत पाश्‍चात्‍य राज्‍य-शिक्षा और धनार्जन की विभिन्‍न प्रणालियाँ जहाँ जहाँ फैल रही हैं, वहीं अपने वंशगत पुरोहित-व्‍यवसाय को छोड़कर हज़ारों ब्राह्मण युवक अन्‍य जातियों की वृत्ति का अवलंबन कर धनवान हो रहे हैं; साथ ही उन पुरोहित पूर्वजों के आचार-व्‍यवहार एकदम रसातल को जा रहे हैं।

गुजरात में ब्राह्मणों के प्रत्‍येक अवांतर संप्रदाय में दो भाग हैं। एक पुरोहित व्‍यवसायियों का और दूसरा अन्‍य वृत्तिवालों का। पुरोहित-व्‍यवसायी संप्रदाय ही उस प्रांत में ब्राह्मण कहलाता है। दूसरा संप्रदाय यद्यपि एक ही ब्राह्मण-कुल से उत्‍पन्‍न हुआ है, तो भी पुरोहित ब्राह्मण उससे वैवाहिक संबंध नहीं रखते। जैसे 'नागर ब्राह्मण' कहने से वे ही ब्राह्मण समझे जाते हैं, जो भिक्षावृत्ति से पुरोहित हैं, और केवल 'नागर' कहने से वे, जो राज-कर्मचारी या वैश्‍यवृत्ति के हैं। परंतु अब यह दिखाई दे रहा है कि उस प्रांत में भी यह भेद बहुत कुछ ढीला पड़ गया है। नागर ब्राह्मणों के लड़के भी अब अंग्रेजी पढ़ पढ़कर राज-कर्मचारी हो रहे हैं, या व्‍यापार आदि कर रहे हैं। संस्‍कृत चतुष्‍पाठियों के अध्‍यापक भी सब कष्‍ट सहकर अपने लड़कों को विश्‍वविद्यालयों में भेज रहे हैं और उनसे कायस्‍थों और वैश्‍यों की वृत्ति का अवंलबन करा रहे हैं। यदि स्रोत इसी प्रकार बहता रहा, तो वर्तमान पुरोहित जाति कितने दिनों तक इस देश में और ठहर सकेगी, यह सोचने का विषय है। जो लोग किसी विशेष व्‍यक्ति या संप्रदाय पर ब्राह्मण जाति को अधिकारच्‍युत करने का दोष मढ़ते हैं, उन्‍हें भी जानना चाहिए कि ब्राह्मण जाति अटल प्राकृतिक नियमों के अनुसार ही अपना समाधि-मंदिर आप ही बना रही है। यही कल्‍याणकर है, क्‍योंकि प्रत्‍येक ऊँची जाति का अपने ही हाथों से अपनी चिता बनाना प्रधान कर्तव्‍य है।

शक्ति-संचय जितना आवश्‍यक है, शक्ति-प्रसार भी उतना ही या उससे भी अधिक आवश्‍यक है। हत्पिण्ड में रक्‍त का एकत्र होना तो आवश्‍यक है ही, पर उसका यदि सारे शरीर में संचालन न हुआ तो मृत्‍यु निश्चित है। समाज के कल्‍याण के लिए कुल तथा जाति विशेष में विद्या और शक्ति का एकत्र होना कुछ समय के लिए परम आवश्‍यक है, परंतु वह शक्ति सर्वत्र फैलने के लिए ही एकत्र हुई है। यदि ऐसा न हुआ, तो समाज-शरीर अवश्‍य तुरंत ही नष्‍ट हो जाएगा।

दूसरी ओर, राजा में पशुराज के सब गुण-दोष विद्यमान हैं। क्षुधा-तृप्ति के लिए सिंह के विकराल नख आदि घास-पात खानेवाले पशुओं के कलेजों को फाड़ने में तनिक भी देर नहीं करते; फिर कवि कहता है कि भूखा और बूढ़ा होने पर भी सिंह अपने चरणों पर गिरे हुए सियार को कभी नहीं खाता। राजा की भोगेच्‍छा में बाधा डालने से ही प्रजा का सत्‍यानाश होता है। यदि वह विनीत हो, राजा की आज्ञाएँ शिरोधार्य करे, तो वह सकुशल है। केवल यही नहीं, समस्‍त समाज के एक ही अभिप्राय और प्रयत्‍न होने का अथवा सार्वजनिक अधिकारों की रक्षा के लिए व्‍यक्तिगत स्‍वार्थ त्‍याग का भाव किसी देश में, प्राचीन समय में तो क्‍या, आज भी पूरी तरह उपलब्‍ध नहीं हुआ है। इसीलिए समाज ने राजा रूपी शक्ति-केंद्र की सृष्टि की। समाज की शक्ति उसी केंद्र में एकत्र होती और वहीं से चारों ओर सारे समाज में फैलती है। जिस प्रकार ब्राह्मणों के प्राधान्‍य काल में ज्ञानेच्‍छा का पहला उन्‍मेष और बचपन में उसका यत्‍वपूर्वक पालन हुआ, उसी प्रकार क्षत्रियों के प्रभुत्‍व-काल में भोगेच्‍छा की पुष्टि और उसकी सहायता करनेवाली शिल्‍पकलाओं की सृष्टि तथा उन्‍नति हुई।

महिमान्वित राजा क्‍या पर्णकुटियों में अपना ऊँचा सिर छिपाए रख सकता है, अथवा साधारण लोगों को मिलने वाले भोज्‍यादि से क्‍या उसकी तृप्ति हो सकती है ?

नरलोक में जिसकी महिमा की तुलना नहीं है और जिसमें देवत्‍व भी आरोपित है, उसके भोग की वस्‍तुओं की ओर ताकना भी साधारण लोगों के लिए महापाप है, उनके पाने की इच्‍छा की तो बात ही क्‍या ? राज-शरीर साधारण शरीर जैसा नहीं है, उसे अशौच आदि दोष नहीं लगते, अनेक देशों में तो यह विश्‍वास है कि उस शरीर की मृत्‍यु भी नहीं होती। इसलिए 'असूर्यम्‍पश्‍यरूपा' राजमहिलाएँ भी परदों में रहा करती हैं, जिससे जनसाधारण की आँखें उन पर न पड़ें।

इस कारण पर्णकुटियों के स्‍थान पर अट्टालिकाएँ बनीं और गँवारू कोलाहल की जगह कला-कौशलवाले मधुर संगीत का पृथ्‍वी पर आगमन हुआ। सुहावनी वाटिकाएँ, चित्त हरनेवाले चित्र, सुंदर मूतियाँ, महीन रेशमी कपड़े, ये सब धीरे-धीरे प्राकृतिक जंगलों का स्‍थान लेने लगे। लाखों बुद्धिजीवी मनुष्‍य खेती के कठिन कामों को छोड़कर थोड़े शारीरिक श्रम से बननेवाली और सूक्ष्‍म बुद्धि का चमत्‍कार दिखानेवाली सैकड़ों कलाओं की ओर झुके। ग्राम का गौरव जाता रहा। नगर का आविर्भाव हुआ।

फिर भारत में अनेक राजा‍ विषय-भोग से ऊबकर अंत में अरण्‍य में चले जाया करते थे और वहाँ रहकर अध्‍यात्‍म विषय की गंभीर आलोचना किया करते थे। इतने भोगों के बाद वैराग्‍य अवश्‍य आएगा। उस वैराग्‍य और गंभीर दार्शनिक चिंता से अध्‍यात्‍म तत्त्व में एकांत अनुराग और मंत्र-बहुल क्रियाकांड से अत्‍यंत घृणा उत्‍पन्‍न होती थी, जिसका परिचय उपनिषद् गीता एवं जैन और बौद्धधर्म ग्रंथ अच्‍छी तरह देते हैं। यहाँ पर भी पुरोहित-शक्ति और राज-शक्ति में भारी कलह उपस्थित हुआ। कर्मकांड के लोप होने से पुरोहितों का वृत्ति-नाश होता है, इसीलिए प्राचीन रीति-नीतियों की प्राणपण से रक्षा करना सब युगों और देशों के पुरोहितों के लिए स्‍वाभाविक है। पर जनक जैसे बाहुबल और आध्‍यात्मिक बल संपन्‍न राजा उसके विरोध के लिए खड़े थे। उस बड़े संघर्ष की बात पहले कही जा चुकी है।

जिस प्रकार पुरोहित लोग सारी विद्याओं को अपने में ही एकत्र करना चाहते हैं, उसी प्रकार राजा लोग भी समस्‍त पा‍र्थिव शक्तियों को अपने में ही केंद्रित करने का यत्‍न करते हैं। इन दोनों ही से लाभ है। दोनों यथासमय समाज के कल्‍याण के लिए आवश्‍यक है; पर वह केवल समाज के बचपन में। जवानी के शरीर में समाज को बलपूर्वक लड़कपन के कपड़े पहनाने से वह या तों अपने तेज-बल से उसे फाड़कर आगे बढ़ता है, अथवा उसमें यदि असमर्थ हुआ तो, फिर धीरे-धीरे असंभव अवस्‍था को प्राप्‍त हो जाता है।

राजा अपनी प्रजा का माता-पिता है। प्रजा उसकी संतान है। प्रजा को पूरी तरह राजाश्रित रहना चाहिए और राजा को भी पक्षातीत भाव से प्रजा का अपनी संतान की तरह पालन करना चाहिए परंतु जो नीति घर घर के लिए उपयुक्‍त है, वही सारे समाज पर भी लागू है। समाज घरों की समष्टि मात्र है। जब पुत्र सोलह वर्ष का हो जाए, तब यदि पिता को उसके साथ मित्र की भाँति बर्ताव करना चाहिए, तो फिर समाजरूपी बच्‍चा क्‍या सोलह वर्ष की अवस्‍था कभी प्राप्‍त ही नहीं करता ? [12] इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्रत्‍येक समाज किसी समय उस जवानी को अवश्‍य प्राप्‍त करता है, और सभी समाजों में शक्तिमान शासकों और जनता में कलह उपस्थित होता है। इसी युद्ध के परिणाम पर समाज का जीवन, उसका विकास और उसकी सभ्‍यता निर्भर है।

यह विप्‍लव भारत में भी बार- बार हुआ करता है पर धर्म के नाम से, क्‍योंकि यह देश धर्मप्राण है; धर्म ही इसकी भाषा और सब उद्योगों का चिन्‍ह है। चार्वाक, जैन और बौद्ध, शंकर, रामानुज और चैतन्‍य के पंथ, तथा कबीर, नानक, ब्राह्म समाज, आर्य समाज आदि सभी संप्रदायों में धर्म की फेनमय, वज्र की भाँति गरजने वाली तरंगें सामने हैं, और सामाजिक अभावों की पूर्ति उनके पीछे है। यदि कुछ अर्थहीन शब्‍दों के उच्‍चारण से ही सारी कामनाएँ सिद्ध होती हैं, तो फिर अपनी इष्‍ट-सिद्धि के लिए कौन कष्‍टसाध्‍य पुरुषकार का सहारा लेगा ? और यदि यह रोग सारे समाज-शरीर में प्रवेश कर जाए, तो समाज बिल्‍कुल उद्यमहीन होकर विनष्‍ट हो जाएगा। इसीलिए प्रत्‍यक्षवादी चार्वाकों की चुभनेवाली चुटकियाँ शुरू हुई। पशुमेध, नरमेध, अश्‍वमेध आदि विस्‍तृत कर्मकांड के दम घोंटनेवाले भार से समाज का उद्धार सदाचारी और ज्ञानाश्रयी जैनों के अतिरिक्‍त और कौन कर सकता था ? उसी तरह, बलवान अधिकारी जातियों के दारूण अत्‍याचार से निम्‍न श्रेणियों के मनुष्‍यों को बौद्ध विप्‍लव के अतिरिक्‍त और कौन बचा सकता था ? कुछ समय के बाद जब बौद्ध धर्म का महान् सदाचार घोर अनाचार में परिणत हुआ और साम्‍यवाद की अधिकता से उस संप्रदाय में आए हुए विविध बर्बर जातियों के पैशाचिक नृत्‍य से समाज काँपने लगा, तब पूर्व भाव को यथासंभव पुन: स्‍थापित करने के लिए शंकर और रामानुज ने प्रयत्‍न किया। फिर कबीर, नानक, चैतन्‍य, बाह्य समाज और आर्य समाज का यदि जन्‍म न होता, तो आज भारत में हिंदुओं की अपेक्षा मुसलमान और ईसाइयों की संख्‍या नि:संदेह बहुत अधिक होती।

अनेक धातुओं द्वारा बने हुए इस शरीर तथा अनंत भाव-तरंगवाले मन को बलिष्‍ठ बनाने के लिए पौष्टिक खाद्य पदार्थ के समान और दूसरी अच्‍छी चीज़ कौन सी है ? पर जो खाद्य शरीर-रक्षा और मन की बल-बुद्धि के लिए इतना आवश्‍यक है, उसका शेषांश यदि उचित समय पर शरीर से बाहर न निकाल दिया जाए, तो वही सब अनर्थों का कारण हो जाता है।

समष्टि (समाज) के जीवन में व्‍यष्टि (व्‍यक्ति) का जीवन है; समष्टि के सुख में व्‍यष्टि का सुख है; समष्टि के बिना व्‍यष्टि का अस्तित्‍व ही असंभव है, यही अनंत सत्‍य जगत् का मूल आधार है। अनंत समष्टि के साथ सहानुभूति रखते हुए उसके सुख में सुख और उसके दु:ख में दु:ख मानकर धीरे-धीरे आगे बढ़ना ही व्‍यष्टि का एकमात्र कर्तव्‍य है। और कर्तव्‍य ही क्‍यों ? इस नियम का उल्‍लंघन करने से उसकी मृत्‍यु होती है और उसका पालन करने से वह अमर होता है। प्रकृति की आँखों में धूल डालने का सामर्थ्‍य किसे है ? समाज की आँखों पर बहुत दिनों तक पट्टी नहीं बाँधी जा सकती। समाज के ऊपरी हिस्‍से में कितना ही कूड़ा-करकट क्‍यों न इकट्ठा हो गया हो, परंतु उस ढेर के नीचे प्रेमरूप नि:स्‍वार्थ सामाजिक जीवन का प्राण-स्‍पंदन होता ही रहता है। सब कुछ सहनेवाली पृथ्‍वी की भाँति समाज भी बहुत सहता है। परंतु एक न एक दिन वह जागता ही है, और तब उस जाग्रति के वेग से युगों की एकत्र मलिनता तथा स्‍वार्थपरता दूर जा गिरती है।

अज्ञानी, पाशविक प्रकृति के हम मनुष्‍य हजारों बार ठगे जाकर भी इस महान् सत्‍य में विश्‍वास नहीं रखते। हजारों बार ठगे जाकर भी हम लोग फिर ठगने की चेष्‍टा करते हैं। पागलों की तरह हम लोग सोचते हैं कि प्रकृति को हम धोखा दे सकते हैं। हम लोग अत्‍यंत अल्‍पदर्शी हैं -समझते हैं कि स्‍वार्थ-साधन ही जीवन का चरम उद्देश्‍य है।

विद्या, बुद्धि, धन, जन, बल, वीर्य जो कुछ प्रकृति हम लोगों के पास एकत्र करती है, वह फिर बाँटने के लिए है; हमें यह बात स्‍मरण नहीं रहती; सौंपे हुए धन में आत्‍म-बुद्धि हो जाती है, बस इसी प्रकार विनाश का सूत्रपात होता है।

राजा जो प्रजा-समष्टि का शक्ति-केंद्र है, वह बहुत जल्‍दी भूल जाता है कि शक्ति उसमें इसलिए संचित हुई है कि वह फिर लोगों में हजार गुनी बँट जाए। राजा वेण [13] की तरह वह सब देवत्‍व अपने में ही आरोपित कर दूसरों को हीन मनुष्‍य समझने लगता है। उसकी इच्‍छा का, चाहे वह भली हो या बुरी, विरोध करना ही महापाप है। इसलिए पालन की जगह पीड़न और रक्षण की जगह भक्षण आप ही आ जाता है। यदि समाज बलहीन रहा तो वह सब कुछ चुपचाप सह लेता है, और राजा-प्रजा दोनों ही हीन से हीनतर अवस्‍था को प्राप्‍त होकर शीघ्र ही किसी दूसरी बलवान जाति के शिकार बन जाते हैं। पर यदि समाज-शरीर बलवान रहा, तो शीघ्र ही अत्‍यंत प्रबल प्रतिक्रिया उपस्थित होती है-जिसकी चोट से छत्र, दंड, चँवर आदि बड़ी दूर जा गिरते हैं, और सिंहासन अजाएबघर में रखी हुई पुरानी अनूठी वस्‍तुओं के सदृश हो जाता है।

जिस शक्ति की भौंहें टेढ़ी होने पर महाराजा भी थर-थर काँपते हैं, जिसके हाथ के सोने की थैली की आशा से राजा से रंग तक बगुलों की तरह पाँति बाँधे सिर झुकाये पीछे पीछे चलते हैं, उसी वैश्‍य-शक्ति का विकास पूर्वोक्‍त प्रतिक्रिया का फल है।

ब्राह्मण ने कहा, 'सब बलों का बल विद्या है, और वह विद्या मेरे अधीन है, इसलिए समाज मेंरे शासन में रहेगा।' कुछ दिन ऐसा ही रहा। फिर क्षत्रिय ने कहा,'यदि मेरा अस्‍त्र-बल न रहे, तो तुम अपने विद्या-बल सहित न जाने कहाँ चले जाओगे। मैं ही श्रेष्‍ठ हूँ।' म्‍यान में तलवार झनझना उठी, और समाज ने उसके सामने सिर झुका दिया। विद्योपासक ब्राह्मण सबसे पहले राजोपासक बने। वैश्‍य कहता है, 'पागल, जिसको तुम अखण्‍डमण्‍डलाकारं व्‍याप्‍तं येन चराचरम् कहते हो, वही सर्वशक्तिमान मुद्रा-रूप है, और वह मेरे ही हाथों में है। देखो, इसकी बदौलत मैं भी सर्वशक्तिमान हूँ। ब्राह्मण, तुम्‍हारा तप-जप, विद्या-बुद्धि मैं इसके प्रभाव से अभी मोल ले लेता हूँ। और महाराज, तुम्‍हारा अस्‍त्र, शस्‍त्र, तेज, वीर्य इसकी कृपा से मेरी काम-सिद्धि के लिए बरता जाएगा। ये जो बड़े बड़े पुतलीधर और कारखाने तुम देखते हो, वे मेरे मधु के छत्ते हैं। वह देखो, असंख्‍य शूद्ररूपी मक्खियाँ उसमें रात-दिन मधु एकत्र करती हैं परंतु वह मधु कौन पिएगा ?- मैं । ठीक समय पर उसकी एक एक बूँद मैं निचोड़ लूँगा।'

जिस प्रकार ब्राह्मणों और क्षत्रियों के उदय-काल में विद्या और सभ्‍यता का संचय हुआ था, उसी प्रकार वैश्‍यों के प्रभुत्‍व-काल में धन का संचय हुआ। जिस रूपये की झनक चारों वर्णों का मन हरण कर सकती है, वही रूपया वैश्‍यों का बल है। वैश्‍य को सदा इस बात का डर लगा रहता है कि कहीं उस धन को ब्राह्मण ठग न ले और क्षत्रिय जबरदस्‍ती छीन न ले। इसी कारण अपनी रक्षा के लिए वैश्‍य लोग सदा एकमत रहते हैं। सूद रूपी कीड़ा हाथ में लिए वैश्‍य सबके हृदय में धड़कन उत्‍पन्‍न करता है। अपने रूपये के बल से राज-शक्ति को दबाये रखने के लिए वह सदा व्‍यस्‍त है। वह इस बात से सदा सचेत रहता है कि राज-शक्ति उसे धन-धान्‍य संचय करने में बाधा न डाले। परंतु उसकी यह इच्‍छा बिल्‍कुल नहीं होती कि यह राज-शक्ति क्षत्रियकुल से शूद्र कुल में चली जाए।

वणिक किस देश में नहीं जाता ? स्‍वयं अज्ञ होकर भी वह व्‍यापार के अनुरोध से एक देश की विद्या, बुद्धि और कला-कौशल दूसरे देश में ले जाता है। जो विद्या, सभ्‍यता और कला-कौशलरूपी रक्‍त ब्राह्मणों और क्षत्रियों के अधिकार में समाज के ह्यत्पिण्‍ड में जमा हुआ था, वही अब वैश्‍यों के बाजारों की ओर जाने वाले राजपथ रूपी नसों द्वारा सर्वत्र फैल रहा है। वैश्‍यों का यह उत्‍थान यदि न होता, तो आज एक देश का भोज्‍य पदार्थ, सभ्‍यता, विलास और विद्या दूसरे देशों में कौन ले जाता ?

फिर जिनके शारीरिक परिश्रम पर ही ब्राह्मणों का आधिपत्‍य, क्षत्रियों का ऐश्‍वर्य और वैश्‍यों का धन-धान्‍य निर्भर है, वे कहाँ हैं ? समाज का मुख्‍य अंग होकर भी जो लोग सदा सब देशों में जघन्‍यप्रभवो हि स: कहकर पुकारे जाते हैं, उनका क्‍या हाल है ? जिनके विद्यालाभ जैसे महान् अपराध के लिए भारत में 'जिह्वाच्‍छेद, शरीर-भेद, आदि अनेक दंड प्रचलित थे, वे ही भारत के 'चलमान श्‍मशान' (चलते-फिरते मुरदे) और दूसरे देशों के 'भारवाही पशु' शूद्र किस दशा में हैं ?

इस देश का हाल क्‍या कहा जाए ? शूद्रों की बात तो अलग रही, भारत का ब्राह्मणत्‍व अभी गोरे अध्‍यापकों में है, और उसका क्षत्रियत्‍व चक्रवर्ती अंग्रेज़ों में। उसका वैश्‍यत्‍व भी अंग्रेजों की नस नस में है। भारतवासियों के लिए तो केवल भारवाही पशुत्‍व अर्थात् शूद्रत्‍व ही रह गया। घोर अंधकार ने अभी सबको समान भाव से ढँक लिया है। अभी चेष्‍टा में दृढ़ता नहीं है, उद्योग में साहस नहीं है, मन में बल नहीं है, अपमान से घृणा नहीं है, दासत्‍व के अरुचि नहीं है, हृदय में प्रीति नहीं है और प्राण में आशा नहीं है। और है क्‍या, केवल प्रबल ईर्ष्‍या, स्‍वजाति-द्वेष, दुर्बलों का जैसे-जैसे करके नाश करने और कुत्‍तों की तरह बलवानों के चरण चाटने की विशेष इच्‍छा। इस समय तृप्ति, धन, और ऐश्‍वर्य दिखाने में है, भक्ति स्‍वार्थ-साधन में है, ज्ञान अनित्‍य वस्‍तुओं के संग्रह में है, योग पैशाचिक आचार में है, कर्म दूसरों के दासत्‍व में है, सभ्‍यता विदेशियों की नक़ल करने में है, वक्‍तृत्‍व कटु भाषण में है और भाषा की उन्‍नति धनिकों की बेढंगी खुशामद में या जघन्‍य अश्‍लीलता के प्रचार में है। जब सारे देश में शूद्रत्‍व भरा हुआ है, तो शूद्रों के विषय में अलग से क्‍या कहा जाए। अन्‍य देशों के शूद्र-कुल की नींद कुछ टूटी सी है, पर उनमें विद्या नहीं है। उसके बदले है उनका साधारण जाति-गुण-स्‍वजाति-द्वेष। उनकी संख्‍या यदि अधिक ही है, तो क्‍या ? जिस एकता के बल से दस मनुष्‍य लाख मनुष्‍यों की शक्ति संग्रह करते हैं,वह एकता अभी शूद्रों से कोसों दूर है। इसलिए सारी शूद्र जाति प्राकृतिक नियमों के अनुसार पराधीन है।

परंतु फिर भी आशा है। काल के प्रभाव से ब्राह्मण आदि वर्ण भी शूद्रों का नीच स्‍थान प्राप्‍त कर रहे हैं, और शूद्र जाति ऊँचा स्‍थान पा रही है। शूद्रों से भरे, रोम के दास यूरोप ने क्षत्रियों का बल प्राप्‍त किया है। महा बलवान चीन हम लोगों के सामने ही बड़ी शीघ्रता से शूद्रत्‍व प्राप्‍त कर रहा है, और नगण्‍य जापान हवा की तरह शूद्रत्‍व को झाड़ता हुआ ऊँची जातियों का अधिकार ले रहा है। यहाँ पर आजकल के यूनान और इटली के क्षत्रिय-पद पर उत्‍थान का और तुर्क, स्‍पेन आदि के पतन का कारण भी सोचने का विषय है।

तो भी एक ऐसा समय आएगा, जब शूद्रत्‍व सहित शूद्रों का प्राधान्‍य होगा, अर्थात् आजकल जिस प्रकार शूद्र जाति वैश्‍यत्‍व अथवा क्षत्रियत्‍व लाभ कर अपना बल दिखा रही है, उस प्रकार नहीं वरन् अपने शूद्रोचित धर्म-कर्म सहित वह समाज में आधिपत्‍य प्राप्‍त करेगी। पाश्‍चात्‍य जगत् में इसकी लालिमा भी आकाश में दीखने लगी है, और इसका फलाफल विचार कर सब लोग घबराए हुए हैं। सोशलिज्‍़म [14] , अनार्किज्म [15] , नाइहिलिज्‍़म [16] आदि संप्रदाय इस विप्‍लव की आगे चलनेवाली ध्‍वजाएं हैं। युगों से पिसकर शूद्र मात्र या तो कुत्‍तों की तरह बड़ों के चरण चाटनेवाले या हिंस्‍त्र पशुओं की तरह निर्दय हो गए हैं। फिर सदा से उनकी अभिलाषाएँ निष्‍फल होती आ रही हैं। इसलिए दृढ़ता और अध्‍यवसाय उनमें बिल्‍कुल नहीं है।

पाश्‍चात्‍य जगत् में विद्या का प्रचार होने पर भी वहाँ शूद्रों के उत्‍थान में एक बड़ी अड़चन रह गई है। इसका कारण यह है कि वहाँ लोग गुणगत जाति मानते हैं। ऐसी ही गुणानुसार वर्ण-व्‍यवस्‍था इस देश में भी प्राचीन काल में प्रचलित थी, जिसके कारण शुद्र जाति की उन्‍नति कभी हो ही नहीं सकती थी। एक तो शूद्रों को विद्या प्राप्‍त करने तथा धन संग्रह करने का सुभीता बहुत कम था। दूसरे, यदि एक-दो असाधारण मनुष्‍य शुद्रकुल में कभी उत्‍पन्‍न भी होते, तो उच्‍च वर्ण तुरंत उन्‍हें उपाधियाँ देकर अपनी मंडली में खींच लेता था। उनकी विद्या का प्रभाव और धन का हिस्‍सा दूसरी जातियों के काम आता था। उनके सजातीय उनकी विद्या, बुद्धि और धन से कुछ भी लाभ नहीं उठा सकते थे। इतना ही नहीं, वरन् कुलीनों के निकम्‍मे मनुष्‍य कूड़ा-कर्कट की तरह निकाल कर शूद्र-कुल में मिला दिए जाते थे।

वेश्‍यापुत्र वशिष्‍ठ [17] और नारद [18] , दासीपुत्र सत्‍यकाम, जाबाल [19] , धीवर व्‍यास [20] , अज्ञातपिता कृप [21] , द्रोण [22] और कर्ण [23] आदि सबने अपनी विद्या या वीरता के प्रभाव से ब्राह्मणत्‍व या क्षत्रियत्‍व पाया था परंतु इससे वैश्‍या, दासी, धीवर या सारथिकुल का क्‍या लाभ हुआ,यह सोचने का विषय है। फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्‍य-कुल से निकाले हुए मनुष्‍य सदा शूद्र-कुल में जा मिलते थे।

आजकल के भारत में शूद्र-कुल में उत्‍पन्‍न बड़े से बड़ा या करोड़पति को भी अपना समाज छोड़ने का अधिकार नहीं है। इसका फल यह होता है कि उसकी विद्या-बुद्धि और धन का प्रभाव उसी जाति में रह जाता है तथा उसी समाज का कल्‍याण करने में प्रयुक्‍त होता है। इस प्रकार इस जन्‍मगत जाति की व्‍यवस्‍था से प्रत्‍येक जाति अपनी सीमा के बाहर जाने में असमर्थ होकर अपनी ही मंडली के लोगों की धीरे-धीरे उन्‍नति कर रही है। जब तक भारत में बिना जाति की परवाह किए दंड-पुरस्‍कार देनेवाला राजशासन रहेगा, तब तक नीच जातियों की इसी प्रकार उन्‍नति होती रहेगी।

समाज का नेतृत्‍व चाहे विद्या-बल से प्राप्‍त हुआ हो, चाहे बाहु-बल से अथवा धन-बल से, पर उस शक्ति का आधार प्रजा ही है। शासक-समाज जितना ही इस शक्ति के आधार से अलग रहेगा, उतना ही वह दुर्बल होगा। परंतु माया की ऐसी विचित्र लीला है कि जिनसे परोक्ष या प्रत्‍यक्ष रीति से,छल-बल-कौशल के प्रयोग से अथवा प्रतिग्रह द्वारा शक्ति प्राप्‍त की जाती है, उनकी ही गणना शासकों के निकट शीघ्र समाप्‍त हो जाती है। जब पुरोहित-शक्ति ने अपनी शक्ति के आधार प्रजावर्ग से अपने को संपूर्ण अलग किया, तब प्रजा की सहायता पाने वाली उस समय की राज-शक्ति ने उसे पराजित किया। फिर जब राज-शक्ति ने अपने को संपूर्ण स्‍वाधीन समझकर अपने और अपनी प्रजा के बीच में एक गहरी खाई खोद डाली, तब साधारण प्रजा की कुछ अधिक सहायता पानेवाले वैश्‍य-कुल ने राजाओं को या तो नष्‍ट कर डाला या अपने हाथ की कठपुतलियाँ बनाया। इस समय वैश्‍य-कुल अपनी स्‍वार्थ-सिद्धि कर चुका है, इसीलिए प्रजा की सहायता को अनावश्‍यक समझ वह अपने को प्रजावर्ग से अलग करना चाहता है। यहाँ इस शक्ति की भी मृत्‍यु का बीज बोया जा रहा है।

साधारण प्रजा सारी शक्ति का आधार होने पर भी उसने आपस में इतना भेद कर रखा है‍ कि वह अपने सब अधिकारों से वंचित है, और जब तक ऐसा भाव रहेगा तब तक उसकी यही दशा रहेगी। साधारण कष्‍ट, घृणा या प्रीति आपस में सहानुभूति का कारण होती है। जिस नियम से हिंस्‍त्र पशु दलबद्ध हो शिकार करते फिरते हैं, उसी नियम से मनुष्‍य भी मिलकर रहते तथा जाति या राष्‍ट्र का संगठन करते हैं।

एकांत स्‍वजाति-प्रेम और परजाति-विद्वेष राष्‍ट्र की उन्‍नति का एक़ प्रधान कारण है। इसी स्‍वजाति-प्रेम और परजाति-विद्वेष ने प्रतिद्वंद्विता की सृष्टि कर ईरान-द्वेषी स्‍पेन को, स्‍पेन-द्वेषी फ्रांस को, फ्रांस-द्वेषी इंग्लैंड और जर्मनी को तथा इंग्लैंड-द्वेषी अमेरिका को उन्‍नति के शिखर पर चढ़ाया है।

स्‍वार्थ ही स्‍वार्थ-त्‍याग का पहला शिक्षक है। व्‍यष्टि के स्‍वार्थों की रक्षा के लिए ही समष्टि के कल्‍याण की ओर लोगों का ध्‍यान जाता है। स्‍वजाति के स्‍वार्थ में अपना स्‍वार्थ है, और स्‍वजाति के हित में अपना हित। बहुत से काम कुछ लोगों की सहायता बिना किसी प्रकार नहीं चल सकते, आत्‍मरक्षा तक नहीं हो सकती। स्‍वार्थ-रक्षा के लिए यह सहकारिता सब देशों और जातियों में पाई जाती है। पर इस स्‍वार्थ की सीमा में हेर-फेर है। संतान उत्‍पन्‍न करने और किसी प्रकार पेट भरने का अवसर पाने से ही भारतवासियों की पूरी स्‍वार्थ-सिद्धि हो जाती है। हाँ, उच्‍च वर्णों के लिए इतना और है कि उनके धर्माचरण में कोई बाधा न पड़े। वर्तमान भारत में इससे बड़ी और महत्‍वाकांक्षा नहीं है। यही भारत-जीवन का उच्‍चतम सोपान है।

भारत की वर्तमान शासन-प्रणाली में कई दोष हैं, पर साथ ही कई बड़े गुण भी हैं। सबसे बड़ा गुण तो यह है कि सारे भारत पर एक ऐसे शासन-यंत्र का प्रभाव है, जैसा इस देश में पाटलिपुत्र साम्राज्‍य के पतन के बाद कभी नहीं हुआ। वैश्‍याधिकार की जिस चेष्‍टा से एक देश का माल दूसरे देश में लाया जाता है, उसी चेष्‍टा के फलस्‍वरूप विदेशी भाव भी भारत की अस्थि-मज्‍जा में बलपूर्वक प्रवेश पा रहे हैं। इन भावों में कुछ तो बहुत ही लाभदायक हैं, कुछ हानिकारक हैं, और कुछ इस बात के परिचायक हैं कि विदेशी लोग इस देश का यथार्थ कल्‍याण करने में अज्ञ हैं।

परंतु इन गुण-दोषों के भीतर से भविष्‍य के अशेष मंगल का यह चिह्न भी दीखता है कि इस विजातीय और प्राचीन स्‍वजातीय भाव के संघर्ष से बहुत दिनों की सोयी हुई जाति धीरे धीरे जग रही है। उससे भूलें हों, तो भी कोई हानि नहीं। सभी कामों में भूल-भ्रम-प्रमाद ही हमारा उत्तम शिक्षक है। सत्‍य का पथ उसी को मिलता है, जिससे भूलें होती हैं। वृक्ष से भूल नहीं होती, पत्‍थर को भ्रम नहीं होता, पशुओं में भी नियम-विरुद्ध आचरण कम ही देखने में आते हैं, परंतु यथार्थ ब्राह्मणों की उत्‍पत्ति भ्रम-प्रमाद से भरे मनुष्‍य-कुल में ही होती है। हम लोगों के लिए यदि दूसरे लोग ही बचपन से मृत्‍यु तक के सब कर्म और उठने के समय से सोने तक की सारी चितांएँ निश्चित कर दें, और राज-शक्ति का दबाव डालकर उन नियमों के कठोर बंधन से हमें जकड़ दें, तो हम लोगों के लिए चिंता करने का और विषय रहा ही क्‍या ? मननशील होने के कारण ही तो हम लोग मनुष्‍य हैं, मनीषी हैं और मुनिक हैं। चिंताशीलता का लोप होते ही तमोगुण का प्रादुर्भाव होता है और जड़त्‍व आ जाता है। इस समय भी प्रत्‍येक धर्म-नेता और समाज-नेता समाज के लिए नियम बनाने में ही व्‍यस्‍त है ! देश में क्‍या नियमों की कमी है ? नियमों से पिसकर समाज जो अधोगति प्राप्‍त कर रहा है, उसे कौन समझता है ?

संपूर्ण स्‍वाधीन स्‍वेच्‍छाचारी राजा के अधीन विजित जाति विशेष घृणा का पात्र नहीं होती है। शक्तिशाली सम्राट् की सब प्रजाएँ समान अधिकार रखती हैं-अर्थात् किसी भी प्रजा को राज-शक्ति के‍ नियमन करने का अधिकार तनिक भी नहीं है। ऐसी दशा में ऊँची जातियों को विशेष अधिकार कम ही रहते हैं। परंतु जहाँ प्रजा-नियमित राजा या प्रजातंत्र विजित जाति पर राज्‍य करता है, वहाँ‍ विजयी और विजितों के बीच बड़ा अंतर हो जाता है, और जो शक्ति विजितों के हित-साधन में पूरी तरह लगायी जाने पर थोड़े ही समय में उनका परम कल्‍याण कर सकती है, उसी शक्ति का बहुत सा हिस्‍सा विजित जाति को वश में रखने की चेष्‍टा में व्‍यय किया जाता है और इस प्रकार वह व्‍यर्थ नष्‍ट हो जाता है। इसी कारण रोम के प्रजातंत्र-शासन की अपेक्षा सम्राटों के शासन-काल में विजातीय प्रजा को अधिक सुख था। इसी कारण ईसाई धर्मप्रचारक पॉल ने विजित यहूदी वंश में जन्‍म लेकर भी रोम के सम्राट् सीज़र के पास अपने अपराध पर विचार कराने की आज्ञा पाई थी।

यदि कोई अंग्रेज़ हम लोगों को 'काला' या 'नेटिव' अर्थात् असभ्‍य कहकर घृणा करे, तो इससे क्‍या ? हम लोगों में तो उससे कहीं अधिक जातिगत घृणा-बुद्धि है। यदि ब्राह्मणों को किसी मूर्ख क्षत्रिय राजा ही सहायता मिल जाए, तो यह कौन कह सकता है कि फिर वे शूद्रों का 'जिह्वाच्‍छेद, शरीर'भेद' आदि करने की चेष्‍टा न करेंगे ! पूर्वीय आर्यावर्त में सब जातियाँ जो सामाजिक उन्‍नति के लिए आपस में कुछ सद्भाव रखती दीख पड़ती हैं, और महाराष्‍ट्र देश में ब्राह्मण जो 'मराठा' जाति की स्‍तुति करने लगे हैं, उसे छोटी जातियों के लोग अभी तक नि:स्‍वार्थ भाव का फल नहीं समझते हैं।

अंग्रेजों के मन में यह धारणा होने लगी है कि भारत-साम्राज्‍य यदि उनके हाथों से निकल जाए तो अंग्रेज़ जाति का विनाश हो जाएगा। इसलिए भारत में इंग्लैंड का अधिकार किसी न किसी प्रकार जमाये रखना ही होगा। और इसका प्रधान उपाय अंग्रेज जाति का 'गौरव' भारतवासियों के हृदयमें सदा जाग्रत रखना समझा गया है। इस बुद्धि की प्रबलता और उसके अनुसार चेष्‍टा की अधिकाधिक वृद्धि देखकर हर्ष और खेद दोनों होते हैं। भारत में रहने वाले अंग्रेज शायद यह भूलते हैं कि जिस वीर्य, अध्‍यवसाय और एकांत स्‍वजाति प्रेम के बल से उन्‍होंने इस राज्‍य को लिया है, और सदा सचेत तथा विज्ञान का सहारा पाने वाली जिस वाणिज्‍य-बुद्धि से उन्‍होंने भारत जैसे सब प्रकार के धन उत्‍पन्‍न करनेवाले देश को भी अंग्रेजी माल का बाजार बना रखा है, उन सब गुणों का जब तक उनके जातीय जीवन से लोप न होगा, तब तक उनका सिंहासन अचल रहेगा। जब तक ऐसे गुण अंग्रेजों में विद्यमान रहेंगे, तब तक भारत जैसे सैकड़ों राज्‍य चले भी जाएँ तो क्‍या, फिर सैकड़ों राज्‍य प्राप्‍त हो जाएँगॉ परंतु इन गुणों के प्रवाह का वेग यदि घट जाए, तो व्‍यर्थ 'गौरव'की चिल्‍लाहट से क्‍या साम्राज्‍य पर शासन हो सकेगा ? इसलिए इन गुणों की प्रबलता रहने पर भी अर्थहीन 'गौरव-रक्षा' के लिए इतनी शक्ति नष्‍ट करना व्‍यर्थ है। वह शक्ति यदि प्रजा के हित के कामों में लगायी जाए, तो वह राजा और प्रजा दोनों का ही कल्‍याण करेगी।

ऊपर कहा जा चुका है कि परदेशियों के संघर्ष से भारत धीरे धीरे जग रहा है। इस थोड़ी सी जाग्रति के फलस्‍वरूप स्‍वतंत्र विचार का थोड़ा बहुत उदय भी होने लगा है। एक ओर आधुनिक पाश्‍चात्‍य विज्ञान है, जिसका शक्ति-संग्रह सबकी आँखों के सामने उसे प्रमाणित कर रहा है, और जिसकी चमक सैकड़ों सूर्यों की ज्‍योति की तरह आँखों में चकाचौंध पैदा कर देती है। दूसरी ओर हमारे पूर्वजों का अपूर्व वीर्य, अमानवी प्रतिभा और देव-दुर्लभ अध्‍यात्‍म-तत्त्व की वे कथाएँ हैं, जिन्‍हें अनेक स्‍वदेशी और विदेशी विद्वानों ने प्रकट किया है, जो युग-युगांतर की सहानुभूति के कारण समस्‍त समाज-शरीर में जल्‍दी दौड़ जाती हैं और बल तथा आशा प्रदान करती हैं। एक ओर जड़-विज्ञान प्रचुर धन-सम्‍पत्ति, प्रभूत बल-संचय और उत्‍कट इंद्रिय-सुख विदेशी साहित्‍य में कोलाहल मचा रहे हैं, दूसरी ओर इस कोलाहल को फाड़ता हुआ, क्षीण परंतु मर्मभेदी स्‍वर से युक्‍त पूर्वीय देवताओं का आर्तनाद सुनायी पड़ता है। एक समय हमारे सामने ये दृश्‍य आते हैं-सुंदर, बढि़या तथा ठीक ढंग से सजाया हुआ भोजन, उम्‍दा पेय, बहुमूल्‍य पोशाक, ऊँचे- ऊँचे, बड़े-बड़े महल तथा नए-नए ढंग की गाड़ियाँ-सवारियाँ आदि, नए नए अदब-कायदे तथा नए- नए फैशन, जिनके अनुसार सज-धजकर हमारे सामने आजकल की विदुषी नारी काफी निर्लज्‍जतापूर्ण स्‍वतंत्रता से घूमती फिरती हैं। ये सब सामग्रियाँ न जाने कितनी नई-नई इच्‍छाएँ तथा वासनाएँ उत्‍पन्‍न करती हैं। परंतु फिर यह दृश्‍य बदलकर इसके स्‍थान में एक दूसरा गंभीर दृश्‍य आ जाता है, और वह है सीता, सावित्री, व्रत-उपवास, तपोवन, जटाजूट, वल्‍कल तथा गैरिक वस्‍त्र, कौपीन, समाधि एवं आत्‍मोपलब्धि की सतत चेष्‍टा। एक ओर पाश्‍चात्‍य समाज की स्‍वार्थपर स्‍वाधीनता है, और दूसरी ओर आर्यों का कठोर आत्‍म-बलिदान। इस विषम संघर्ष से समाज डगमगा उठेगा, तो इसमें आश्‍चर्य ही क्‍या है ? पाश्‍चात्‍य जगत् का उद्देश्‍य व्‍यक्तिगत स्‍वाधीनता है, भाषा अर्थकरी विद्या है और उपाय राजनीति है। भारत का उद्देश्‍य मुक्ति है, भाषा वेद है और उपाय त्‍याग है। वर्तमान भारत मानो एक बार सोचता है कि भविष्‍य के संदिग्‍ध पारमार्थिक हित के मोह में पड़कर मैं इस लोक का व्‍यर्थ नाश कर रहा हूँ; फिर मंत्र-मुग्‍ध की तरह सुनता है -

इति संसारे स्‍फुटतरदोष:।

कथमिह मानव तव संतोष:।।

-- 'संसार में ये सब दोष भरे पड़े हैं। ऐ मनुष्‍यों, यहाँ तुम्‍हें संतोष कैसे हो सकता है?'

एक ओर नया भारत कहता है कि हमको पति-पत्‍नी चुनने में पूरी स्‍वतंत्रता चाहिए, क्‍योंकि जिस विवाह पर हमारे भविष्‍य जीवन का सारा सुख-दु:ख निर्भर है, उसका हम अपनी इच्‍छा से चुनाव करेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भारत की आज्ञा होती है कि विवाह इंद्रिय-सुख के लिए नहीं, वरन् संतानोत्‍पत्ति के लिए है। इस देश की यही धारणा है। संतान उत्‍पन्‍न करके समाज के भावी हानि-लाभ के तुम कारण हो, इसलिए जिस प्रणाली से विवाह करने में समाज का सबसे अधिक कल्‍याण होना संभव है, वही प्रणाली समाज में प्रचलित है। तुम समाज के सुख के लिए अपने सुख-भोग की इच्‍छा त्‍यागो।

एक ओर नया भारत कहता है‍ कि पाश्‍चात्‍य भाव, भाषा, खान-पान और वेश-भूषा का अवलंबन करने से ही हम लोग पाश्‍चात्‍य जातियों की भाँति शक्तिमान हो सकेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि मूर्ख ! नक़ल करने से भी कहीं दूसरों का भाव अपना हुआ है ? बिना उपार्जन किए कोई वस्‍तु अपनी नहीं होती। क्‍या सिंह की खाल पहनकर गधा कहीं सिंह हुआ है ?

एक ओर नवीन भारत कहता है कि पाश्‍चात्‍य जातियाँ जो कुछ कर रही हैं, वही अच्‍छा है। अच्‍छा नहीं है तो वे ऐसे बलवान कैसे हुए ? दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि बिजली की चमक तो खूब होती है, पर क्षणिक होती है। बालक ! तुम्‍हारी आँखें चौंधिया रही हैं, सावधान !

तो क्‍या हमें पाश्‍चात्‍य जगत् से कुछ भी सीखने को नही है ? क्‍या हमें चेष्‍टा या प्रयत्‍न करने की जरूरत ही नहीं है ? क्‍या हम सब प्रकार पूरे हैं ? क्‍या हमारा समाज पूर्णतया निश्छिद्र है ? नहीं, सीखने को बहुत कुछ है। प्रयत्‍न तो हमें जीवन भर करना चाहिए। प्रयत्‍न ही मनुष्‍य जीवन का उद्देश्‍य है। श्री रामकृष्‍ण देव कहा करते थे, 'जब तक जिऊँ, तब तक सीखूँ।' जिस व्‍यक्ति या समाज को कुछ सीखना नहीं है, वह मृत्‍यु के मुँह में जा चुका। सीखने को तो है, परंतु भय भी है।

एक कम बुद्धिवाला लड़का श्री रामकृष्‍ण देव के सामने सदा शासत्रों की निंदा करता था। उसने एक बार गीता की बड़ी प्रशंसा की। इस पर श्री रामकृष्‍ण देव ने कहा, "किसी अंग्रेज विद्वान् ने गीता की प्रशंसा की होगी इसीलिए यह भी उसकी प्रशंसा कर रहा है।"

ऐ भारत ! यही विकट भय का कारण है। हम लोगों में पाश्‍चात्‍य जातियों की नकल करने की इच्‍छा ऐसी प्रबल होती जाती है कि भले-बुरे का निश्‍चय अब विचार-बुद्धि, शास्‍त्र या हिताहित ज्ञान से नहीं किया जाता। गोरे लोग जिस भाव और आचार की प्रशंसा करें, वही अच्‍छा है और वे जिसकी निंदा करें, वही बुरा ! अफसोस ! इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय और क्‍या होगा ?

पाश्‍चात्‍य स्त्रियाँ स्‍वाधीन भाव से फिरती हैं, इसलिए वही चाल अच्‍छी है; वे अपने लिए वर आप चुन लेती हैं, इसलिए वही उन्‍नति का उच्‍चतम सोपान है; पाश्‍चात्‍य पुरुष हम लोगों की वेश-भूषा, खान-पान को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, इसलिए हमारी ये चीजें बहुत बुरी हैं; पाश्‍चात्‍य लोग मूर्ति-पूजा को खराब कहते हैं, तो वह भी बड़ी ही खराब होगी, क्‍यों न हो ?

पाश्‍चात्‍य लोग एक ही देवता की पूजा को कल्‍याणप्रद बताते हैं, इसलिए अपने देव-देवियों को गंगा में फेंक दो। पाश्‍चात्‍य लोग जाति-भेद को घृणित समझते हैं, इसलिए सब वर्णों को मिलाकर एक कर दो। पाश्‍चात्‍य लोग बाल्‍य विवाह को सब अनर्थों का कारण कहते हैं, इसलिए वह भी अवश्‍य ही बहुत खराब होगा।

यहाँ पर हम इस बात का विचार नहीं करते कि ये प्रथाएँ चलनी चाहिए अथवा रुकनी चाहिए परंतु यदि पाश्‍चात्‍य लोगों की घृणा-दृष्टि के कारण ही हमारे रीति-रिवाज बुरे साबित होते हों, तो उसका प्रतिवाद अवश्‍य होना चाहिए।

वर्तमान लेखक को पाश्‍चात्‍य समाज का कुछ प्रत्‍यक्ष ज्ञान है। इसी से उसका विश्‍वास है कि पाश्‍चात्‍य समाज और भारत-समाज की मूल गति और उद्दश्‍य में इतना अंतर है कि पाश्‍चात्‍यों के अनुकरण पर गठित समाज इस देश में किसी काम का न होगा। जो लोग पाश्‍चात्‍य समाज में नहीं रहे हैं, और वहाँ की स्त्रियों की पवित्रता की रक्षा के लिए स्त्रियों और पुरुषों के आपस में मिलने के जो नियम और बाधाएँ प्रचलित हैं, उन्‍हें बिना जाने जो अपनी स्त्रियों को पुरुषों से बिना रोक-टोक के मिलने देते हैं, उन लोगों से हमारी रत्‍ती भर भी सहानुभूति नहीं है।

पाश्‍चात्‍य देशों में भी मैंने देखा कि दुर्बल जातियों की संतान जब इंग्‍लैंड में जन्‍म लेती है, तो अपने की वह स्‍पेनिश, पोर्तुगीज़, यूनानी आदि-जो वह हो-न बताकर अंग्रेज़ ही बताती है। बलवान की ओर सब कोई दौड़ता है। दुर्बल मात्र की यह इच्‍छा रहती है कि बड़े लोगों के गौरव की छटा उसके शरीर में कुछ लग जाए। भारतवासियों को जब मैं अंग्रेज़ी वेश-भूषा में देखता हूँ, तब समझता हूँ कि ये लोग शायद पददलित, विद्याहीन, दरिद्र भारतवासियों के साथ अपनी सजातीयता स्‍वीकार करने में लज्जित होते हैं। चौदह सौ वर्ष तक हिंदुओं के रक्‍त से पलकर भी पारसी लोग अब 'नेटिव' नहीं हैं ! जातिहीन और अपने को ब्राह्मण बतानेवाली जातियों के जात्‍यभिमान के निकट बड़े- बड़े कुलीन ब्राह्मणों तक का जात्‍यभिमान कपूर की तरह उड़कर लुप्‍त हो जाता है। फिर पाश्‍चात्‍यों ने अब हमें यह भी सिखलाया है कि यह जो कमर में ही कपड़ा लपेटनेवाली मूर्ख नीच जाति है, वह अनार्य है; इसलिए वे लोग हमारे अपने नहीं हैं !!

ऐ भारत ! क्‍या दूसरों की ही हाँ में हाँ मिलाकर, दूसरों की ही नक़ल कर, परमुखापेक्षी होकर इन दासों की सी दुर्बलता, इस घृणित, जघन्य निष्‍ठुरता से ही नक़ल कर, परमुखापेक्षी होकर इन दासों की सी दुर्बलता, इस घृणित, जघन्य निष्‍ठुरता से ही तुम बड़े-बड़े अधिकार प्राप्‍त करोगे ? क्‍या इसी लज्‍जास्‍पद कापुरुषता से तुम वीरभोग्‍या स्‍वाधीनता प्राप्‍त करोगे ? ऐ भारत ! तुम मत भूलना कि तुम्‍हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयंती हैं; मत भूलना कि तुम्‍हारे उपास्‍य सर्वत्‍यागी उमानाथ शंकर हैं;मत भूलना कि तुम्‍हारा विवाह, धन और तुम्‍हारा जीवन इंद्रिय-सुख के लिए-अपने व्‍यक्तिगत सुख के लिए-नहीं है; मत भूलना कि तुम जन्‍म से ही 'माता' के लिए बलिस्‍वरूप रखे गए हो; मत भूलना कि तुम्‍हारा समाज उस विराट् महामाया की छाया मात्र है; तुम मत भूलना कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, दलित और मेहतर तुम्‍हारा रक्‍त और तुम्‍हारे भाई हैं। ऐ वीर ! साहस का आश्रय लो। गर्व से बोलो कि मैं भारतवासी हूँ और प्रत्‍येक भारतवासी मेरा भाई है,बोलो कि अज्ञानी भारतवासी, दरिद्र भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी, चांडाल भारतवासी, सब मेरे भाई हैं; तुम भी कटिमात्र वस्‍त्रावृत्त होकर गर्व से पुकारकर कहो कि भारतवासी मेरा भाई है, भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत की देव-देवियाँ मेरे ईश्‍वर हैं,भारत का समाज मेरी शिशुसज्‍जा, मेरे यौवन का उपवन और मेरे वार्द्धक्‍य की वाराणसी है। भाई, बोलो कि भारत की मिट्ठी मेरा स्‍वर्ग है, भारत के कल्‍याण में मेरा कल्‍याण है; और रात-दिन कहते रहो कि -'हे गौरीनाथ ! हे जगदंबे ! मुझे मनुष्‍यत्‍व दो; माँ, मेरी दुर्बलता और का पुरुषता दूर कर दो, मुझे मनुष्‍य बनाओ।'



[1] यज्ञ करते समय देवताओं के आव्‍हान के लिए पुरोहित वैदिक मंत्रों का उच्‍चारण करता था।

[2] यज्ञ करने वाला पुरोहित यजमान कहलाता है।

[3] सोमलता का वेदों में आया हुआ नाम। पुरोहित यज्ञ के समय देवताओं को सोम की आहुति देते थे।

[4] बौद्ध धर्म ग्रहण करने पर अशोक का दूसरा नाम।

[5] महाभारत में उल्लिखित सर्पयज्ञ जनमेजय ने ही संपादित किया था।

[6] अग्निवर्ण एक सूर्यवंशी राजा था। यह अपनी प्रजा से मिलता नहीं था। रात-दिन अंत:पुर में ही रहा करता था। अत्‍यधिक इंद्रियपरता के कारण उसे यक्ष्‍मा रोग हो गया और उसीसे उसकी मृत्‍यु हुई।

[7] भारत का एकच्‍छत्र सम्राट् अशोक। इसने ईसा से क़रीब तीन सौ वर्ष पहले राज्‍य किया था। भ्रातृ-हत्‍या इत्‍यादि नृशंस कार्यों के द्वारा राजसिंहासन प्राप्‍त करने के कारण यह पहले चण्‍डाशोक के नाम से प्रसिद्ध था। कहा जाता है कि सिंहासन-प्राप्ति के क़रीब नौ वर्ष बाद बौद्ध धर्म ग्रहण करने पर इसके स्‍वभाव में आश्‍चर्यजनक परिवर्तन हुआ। भारत तथा अन्‍यान्‍य देशोंमें बौद्ध धर्म का बहुल प्रचार इसीके द्वारा संपन्‍न हुआ। भारत, काबुल, ईरान तथा पैलेस्‍टाइन आदि देशों में अब तक जो स्‍तूप, स्‍तंभ एवं पर्वतों पर अंकित आदेश आदि आविष्‍कृत हुए हैं, उनसे इस बात का प्रचुर प्रमाण मिलता है। इस धर्मानुराग और प्रजा-वात्‍सल्‍य के कारण ही यह बाद में 'देवानां पियो पियदशी' (देवताओं का प्रिय प्रियदर्शन) धर्माशोक के नाम से विख्‍यात हुआ।

[8] हूणजातीय राजा।

[9] आर्यावर्त और गुजरात के फ़ारस से आये हुए सम्राट।

[10] चीन देश के एक प्राचीन धर्म और नीति-संस्‍कारक।

[11] इन तांत्रिक प्रयोगों से किसी व्‍यक्ति की शक्तियों को विजडि़त किया जाता था, उसके मन को किसी वस्‍तु या व्‍यक्ति से हटा दिया जाता था, उसको अपने वश में किया जाता था अथवा उसकी मृत्‍यु को ही बुलाया जाता था।

[12] चाणक्‍य के राजनीति संबंधी ग्रंथ में कहा गया है-'बच्‍चे का, पाँच वर्ष की अवस्‍था तक लालन और फिर दस वर्ष तक उसका ताड़न किया जाना चाहिए, और जब लड़का सोलह वर्ष का हो, तो उससे मित्र के समान व्‍यवहार किया जाना चाहिए।

[13] राजा वेण की कथा भागवत में आयी है । यह अपने को ब्रह्मा, विष्‍णु, महेश आदि देवताओं से भी श्रेष्‍ठ बतलाता था । उसने यह आज्ञा दे रखी थी कि पूजा मेरी ही हो । एक समय ऋषि लोग इसे कुछ सदुपदेश देने आये, जिससे उसका अहंकार दूर हो; पर इस मदांध राजा ने उनका तिरस्‍कार किया और उन्‍हें भी अपनी पूजा करने की आज्ञा दी । इस पर उन ऋषियों को बड़ा कोध आया और उसी क्रोधानल में पढ़कर राजा पंचत्‍व को प्राप्‍त हुआ । महाराज पृथु, जो भगवान् विष्‍णु के अवतार माने जाते हैं, इसी वेण राजाके बाहु-मंथन से उत्‍पन्‍न हुए थे ।

[14] सोशलिज्‍़म(Socialism) इसकी उत्‍पत्ति १८३५ ई. में यूरोप में हुई थी । इसका प्रचार अब यहाँ के सब देशों में हो रहा है । अर्थशास्‍त्र के ऊपर ही इस मत को प्रधान भित्ति स्‍थापित है । इस मत के कई भेद हैं । इसके माननेवालों का मुख्‍य उद्दश्‍य यह है कि देश के मूलधन और भूमि का स्‍वामी समाज हो, न कि व्‍यक्तिविशेष। श्रमजीवो भले ही पूँजीपति न बनें, किंतु उनका वेतन बढ़े और उनके जीवन-स्‍तर का मान उन्‍नत हो - यह सोशलिज्‍़म का एक प्रधान उद्देश्‍य है ।

[15] अनार्किज्‍़म-(Anarchism) इस संप्रदाय के प्रथम प्रवर्तक बकुनिन कहे जा सकते हैं, जिनका जन्‍म १८१४ ई. में हुआ था । बाह्य कर्तुत्‍व या शासन के विरूद्ध आचरण करना इस मत का निचोड़ है । इस मत के माननेवाले कहते हैं कि यदि मनुष्‍य अपनो प्रक़ति के नियमों के अनुसार चले तो राजशासन या क़ानून की आवश्‍यकता नहीं है । इस मत के अनुसार गणतांत्रिक समूहों का ऐच्छिक सम्मि‍लन ही समाज का आदर्श है और तत्‍काल इस अवस्‍था के सर्जन के लिए यथाशक्ति चेष्‍टा करना प्रत्‍येक मनुष्‍य का कर्तव्‍य है ।

[16] नाइहिलिज्‍़म-(Nihilism) यह मत अनार्किज्‍़म के ही समान है । कुछ साधारण अंतर दोनों में है । इसका जन्‍म रूस देश में १८६२ ई. में हुआ था । वहीं इसका अधिक प्रचार है । इस मत के अनुसार तीन चीज़े मिथ्‍या हैं - ईश्‍वर, शासन और विवाह ।

[17] वशिष्‍ठके पिता ब्रह्मा और माता अज्ञात थीं ।

-- महाभारत, आदिपर्व, अध्‍याय १७४ एवं ऋग्‍वेद ।।७।३३।११-१३।।

[18] नारदकी माता एक दासी और पिता अज्ञात था ।

-- श्रीमद्भागवत ।।१।६।।

[19] सत्‍यकाम जाबाल की माता एक दासी और पिता अज्ञात था ।

-- छान्‍दोग्‍योपनिषद् ।।४।४।।

[20] व्‍यास के पिता ब्रह्मर्षि पराशर और माता एक धीवर की कन्‍या थी ।

-- महाभारत, आदिपर्व, अध्‍याय१०५।।

[21] महाभारत, आदिपर्व, अ. १०५, १३० ।।

[22] महाभारत, आदिपर्व, अ. १०५, १३० ।।

[23] महाभारत, आदिपर्व, अ. १०५, १३० ।।


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